संस्कृति और साहित्य

भारतीय परंपरा में भावना को जो स्थान प्राप्त है, यूनानी परंपरा में वही विचार का है।दोनों परंपराओं में बुद्धि को अपना स्थान प्राप्त है। भावना और बुद्धि का योग विवेक के रूप मेंविकसित हो जाता है तथा विचार और बुद्धि का योग तर्क के रूप में। विवेक की दृष्टिउचित-अनुचित पर रहती है, तर्क उसको बहस का विषय बना देता है। इसकी परिणति के रूपमें भारतीय परंपरा जहाँ आचरण को महत्व देती आई है, वहाँ यूनानी परंपरा सत्ता को। वैदिकयुग से आज तक भारतीय परंपरा में जिस प्रकार से आचरण का महत्व अक्षुण्ण रहा है, उसीप्रकार से यूनानी, यूरोपीय, आधुनिक परंपराओं में सत्ता का स्थान सर्वोपरि रहा है। वैदिकपरंपरा में जहाँ कविको मनीषी कहकर उसे सर्वोच्च स्थान दिया गयाहै, वहीं प्लेटो ने यूनानीआदर्श राज्य केकवि को भ्रम फैलाने वाला कहकर बाहर कर दिया । इस मूल भेद के कारणही जहाँ भारत में संस्कृति का विकास हुआ, वहाँ यूनान, यूरोप, अमेरिका आदि में सभ्यताका।बीसवीं सदी के उत्तरार्ध से पश्चिमी दृष्टिकोण में कुछ परिवर्तन आने का संकेत मिलनेलगा है। अमेरिका में डैनियल बेल ने बुद्धि की तीव्रता के स्थान पर भावना की तीव्रता कोमहत्व देकर सनसनी पैदा कर दी है। अपने प्रयोगों और आंकड़ों से उन्होंने प्रमाणित किया हैकि जीवन में बुद्धि से अधिक भावना की तीव्रता का महत्व है, क्योंकि जटिल से जटिलपरिस्थिति को भांप ने में भावना की तीव्रता ही कारगर होती है, बुद्धि की तीव्रता नहीं।उन्नीसवीं सदी के अंत में ही दार्शनिक जॉन डिवे ने भावना औरशिक्षा के महत्व की ओरध्यान आकृष्ट किया था, पर तब उनकी अनसुनी कर दी गई थी।अब स्थिति यह है किसभ्यताओं की टकराहट (क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन्स) लिखकर ख्याति अर्जित करने वाले सैम्युएल हंटिंग्टन जैसे लोग भी यह मानने को विवश हुए हैं कि मानव के विकास में संस्कृतिकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। (‘कल्चर मैटर्स’ नामक उनके द्वारा संपादित पुस्तक)उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के मानदंड से भौतिक विकास में संस्कृति की भूमिका को निर्णायकमानना एक क्रांतिकारी बात है। जापान सहित दक्षिण -पूर्वी एशिया के देशों के विकास की तेजगति का कारण उनकी संस्कृति की विशिष्टता को ही माना जा रहा है। इन क्षेत्रों की संस्कृति केविकास में स्थानीयता के साथ-साथ भारतीय एवं चीनी परंपरा के तत्वों का भी महत्वपूर्णयोगदान रहा है। भारतीय संस्कृति की भव्यता, अखंडता और दीर्घ जीवन का कारण जीवन मेंभावना, साहित्य और दर्शन को यथोचित स्थान प्रदान करना है। भारतीय साहित्य शास्त्रमें रसको ब्रह्ममास्वाद सहोदर इसलिए कहा गया है कि जिस प्रकार से आध्यात्मिक साधना मेंसत्वोदेक का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है , उसी प्रकार से साहित्य में भी रस निष्पत्ति सत्वोदेकके बिना संभव नहीं है। गीता के गुणत्रय विभाग योग नामक चौदहवें अध्याय में मानव जीवन मेंगुण विकास के विषय पर प्रकाश डाला गया है। स्वतंत्रता आंदोलन के युग में भारत कीतामसिक चेतना, सुप्त चेतना, निष्क्रिय चेतना को जगा उसे रजोगुण और सत्व गुण से सम्पन्नकर भावना संस्कार के इसी मार्ग को अपनाया गया था।भावना के संस्कार से ही मनुष्य हैवानसे इंसान बनता है। हर दोपाया यदि इंसान होता तो संसार में इतनी अशांति क्यों होती? यूनानीदार्शनिक अरस्तू ने कहा था कि मनुष्य विचारशील प्राणी है। यदि वह विचारशील होता तोबार-बार युद्ध क्यों होते? वह छल-कपट क्यों करता? मनुष्य वस्तुत भावना के वशीभूत होकरही सुकर्म और दुष्कर्म करताहै। जिसकी भावना संस्कृत नहीं होती वह बार बार दुष्कर्म करताहै। अत: भावना के संस्कार का मानव जीवन में, समाज के विकास की दिशा को निर्धारितकरने में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।भावना के विकास और संस्कार में सबसे महत्वपूर्ण स्थानसाहित्य का है। फिर संगीत, नृत्य, चित्र आदि अन्य कलाओं का। अल्पकाल के लिए संगीत,नृत्य आदि मनुष्य को भावविभोर कर सकते हैं, परंतु साहित्य की तरह से व्यक्ति और समाजदोनों पर स्थायी प्रभावनहीं डाल सकते हैं। भारतीय परंपरा का एक उदाहरण देखिए। श्रीरामके राज्य में सीता कोलेकर प्रवाद पैदा हुआ। राम के बाण में रावण को मारने की शक्ति थी,प्रवाद को समाप्त कर ने की नहीं। जो काम राम के बाण ने नहीं किया, वह वाल्मीकि की वाणीने किया। लव-कुश के मुंह से रामायण का गायन सुनकर यज्ञ मंडप में एकत्र जन समूह ने नकेवल सीता को सर्वथा निर्दोष मान लिया, बल्कि जनमत के कारण राम को सीता के साथलव-कुश को भी सीता पुत्र केरूप में अपना उत्तराधिकारी स्वीकार करना पड़ा।साहित्य मनुष्यके भाव लोक को अत्यंत सहज रूप से बदल देता है। भाव परिवर्तन के बिना वाणी कापरिवर्तन केवल ऊपरी होता है। उसके बिना मनुष्य का आचार-व्यवहार नहीं बदलता।बाहरीपरिवर्तन स्थायी नहीं होता, वह दिखावा या छलावा मात्र होता है। इन दिनों ऐसे छलावे का हीजोर है, इसीलिए घोषणाएं तो होती हैं, परंतु सचमुच में परिणाम कहीं दिखाई नहीं पड़ता।दिखाई देते हैं असफलता, निराशा, असंतोष, विद्रोह, हिंसा। मानव भावनाओं के संस्कार कीओर ध्यान नहीं दिए जाने के कारण यह विसंगति आ गई है।आज मनुष्य के भौतिक विकास पर अपार धनराशि खर्च की जा रही है, पर उसकेभावनात्मक विकास पर कोई ध्यान नहींदिया जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में मनुष्य भावना की दृष्टि से या तो बालक रह जाता है याहैवानबन जाता है। आज चारों ओर उत्तेजना का वातावरण है। संपूर्ण जीवन उत्तेजनामयबनाने के लिए सारे साधन जुटाए जा रहे हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है कि किशोर युवा होजाता है, युवा प्रौढ़ और प्रौढ़ वृद्ध। सारे संसार में मनुष्य की आयु में जो वृद्धि हुई है, वहअधिकांश के लिए इसलिए त्रासद होती जा रही है कि उनके जीवन में शारीरिक या मानसिकदृष्टि से उत्तेजना देनेवाली कोई चीज रही ही नहीं।जो रोग के आरंभ में ही तेज से तेज दवा कासेवन कर लेते हैं, उन पर फिर किसी दवा का असर होता ही नहीं। साहित्य के अभाव में आजमानव समाज की अवस्था लगभग ऐसी ही होती जा रही है।

साहित्य किसी घटना, वस्तु या भावलोक या विचारलोक को उसकी सम्पूर्णता और समग्रता मेंदेखने की दृष्टि प्रदान करता है। जिस साहित्य को मात्र मनोरंजन के लिए पढ़ा जाता है, उसमेंभी भावोदेक की वह शक्ति होती है, भले ही उसका स्तर निम्न होता है। बाल साहित्य के नामपरकिशोरों के लिए कॉमिक्स के रूप में उपलब्धसाहित्य कौतूहल तत्व के कारण हीलोकप्रिय हो रहा है। पर इसी के अनुरूप अब प्रौढ़ों में साहित्य की लोकप्रियता में विश्वव्यापीस्तर पर भारी कमी आई है, जिसके परिणामस्वरूपप्रौढ़ों का उनके बौद्बिक विकास केअनुरूप भावनात्मक विकास नहीं हो पा रहा है। भावनात्मक दृष्टि से ऐसे अविकसित लोगयंत्रवत् अपना काम तो करते हैं, परंतु समग्रता में देखने की शक्ति विकसित न होने के कारणएक ओर आपराधिक घटनाओं में वृद्बि होती जाती है औरदूसरी ओर राष्ट्र का विकास रुकजाता है, क्योंकि नेतृत्व का संकट चुनौती के सामने अपर्याप्त साबित होता है या बड़ी-बड़ीकंपनियों का दिवालियापन उजागर होने लगता है।संपूर्णता और समग्रता की दृष्टि सत्य केसाक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त करती है। सत्य की यह पूर्णता मनुष्य को व्याकुल और व्यग्र करदेतीहै। अर्जुन जैसा धुरंधर भी योगेश्वर के विश्व रूप को देखकर भयभीत हो गया और उनकेमनुष्य रूप को देखने की प्रार्थना करने लगा। लेकिन इससे अर्जुन को भावनात्मक प्रौढ़ता और सम्यक् दृष्टि प्राप्त हुई, महाभारत युद्ध में विजय उसी के कारण प्राप्त हुई, क्योंकितभी अर्जुनका मोह नष्ट हुआ और कर्तव्य में प्रवृत्त होने की स्मृति प्राप्त हुई। (गीता, 18.73)आज मनुष्यअर्जुन से भी अधिक मोहग्रस्त है और वह इसीलिए अपने दायित्व से मुंह मोड़ रहा है। साहित्यसे ही उसका यह मोह, यह संकीर्णता दूर हो सकती है। उसके अध्ययन में अभी साहित्य कीकहीं कोई प्राथमिकता है ही नहीं। वह अपने व्यवसाय से संबंधित सूचनाओं को एकत्र करने मेंव्यस्त है। पर सूचनासे भाव संस्कार नहीं होता, उससे दृष्टि प्राप्त नहीं होती। दृष्टि के अभावमें रास्ताटटोल कर चलने से वह कब कहाँ ठोकर खाएगा? कब कहाँ खाई-खन्दक में गिरेगा,इसका क्या ठिकाना?साहित्य के पठन-पाठन की समुचित व्यवस्था के अभाव में भाषा केसम्यक् प्रयोग का स्तरगिरता जाता है, अभिव्यक्ति शिथिल होती जाती है, कहना चाहता हैकुछ पर कह जाता है कुछ और। इतने घातक हथियारों से संपन्न मनुष्य यदि भाषा का ठीकप्रयोग नहीं कर सकता, तो असावधानी के कारण कभी भी भयंकर दुर्घटना घट सकतीहै।अपूर्ण सत्य के बोध का मनुष्य के मन पर अधूरा प्रभाव पड़ता है, पूर्ण सत्य के दर्शन औरबोध का पूरा प्रभाव। फ्रांस की राज्य क्रांति के पहले रुसो, वाल्टेयर, दिदरॉत आदि ने चर्च औरराजा दोनों के अन्याय और जनता की दुर्दशा का जो चित्र अंकित किया, उसी से प्रेरितभावनात्मक उफान के कारण वहाँ क्रांति हुई, लोकतंत्र का बिगुल बजा, जिसका प्रभाव अंतत:सारे संसार पर पड़ा। भारत मेंजब आधुनिक भारतीय भाषाओं का उदय और विकास हुआ,तो भक्ति आंदोलन युग के साहित्य ने सारे भारत को नई सामाजिक भावनात्मक एकता प्रदानकी। भक्ति काव्य हिंदी में लिखा गया हो या किसी और भाषा में, सबका स्वर एक ही था- ‘ हरिको भजै सो हरि को होई’ और तब ‘जात-पातपूछो नहिं कोई।’ इसी प्रकार से स्वतंत्रता आंदोलन के युग में सारे भारत में एक ही स्वर गूंजा- ‘मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ में देनातुम फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक।’ एक भारतीय आत्मा के पुष्पकी अभिलाषा ने भारतीयों की अभिलाषाका रूप ले लिया। तभी अंग्रेजी राज का सूरजडूबगया और भारतीय स्वतंत्रता के सूरज का उदय हुआ।आज अपसंस्कृति की बात इसलिए उठरहीहै कि भारत की भावनात्मक एकता को विश्व ग्राम के अनुरूप रूप देने के लिए जिसदृष्टि की आवश्यकता है वह उपेक्षित है। भारतीय भाषाओंमें रचे जा रहे साहित्य को शासकवर्ग और उच्च वर्ग का पाठक पढ़ता नहीं और अंग्रेजी में रचा जा रहा अधिकांश साहित्य विदेशीपाठकों को ध्यान में रखकर तैयार किया हुआ ‘माल’ है। राज दरबार में कभी संस्कृत चलतीथी, कभी फारसी और अब अंग्रेजी चलती है। ऐसी स्थिति में भारत या भारतीय लोकतंत्र कातेज कैसे प्रकट हो सकता है? दूसरी तरफ अंग्रेजी भाषा में लिखित साहित्य के पाठकों कीस्थिति यह है कि पटना, लखनऊ आदि कई नगरों में ब्रिटिशकाउंसिल के पुस्तकालय बंदकिए जा रहे हैं।इसका अर्थ यह हुआ कि एक तरफ साक्षरता बढ़ रहीहै और दूसरी तरफउसी गति से शिक्षा का अभाव होता जा रहा है। दिनोंदिन देश के अधिकांश पुस्तकालयों कीस्थिति दयनीय होती जा रही है, पर होटलों और क्लबों की संख्या बढ़ती जा रही है। साहित्य केअभाव में संस्कृति प्राणवान नहीं रह सकती और संस्कृति के अभाव में राष्ट्रीय परंपरा। तो क्याअब भारत भी यूनान , मिस्र , रोम आदि की तरह एक भौगोलिक इकाई मात्र रह जाएगा?

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