हिंदी कविता में पहली बार किसी स्त्री को साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत किए जाने को जब एक ऐतिहासिक घटना की तरह रेखांकित किया जा रहा है, तब साहित्य आजतक पर पढ़िए उनसे हुई खास बातचीत.
हिंदी की सुपरिचित कवयित्री कथाकार अनामिका को पिछले दिनों साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई, तो कविता प्रेमियों व स्त्री कवियों में उत्साह की लहर दौड़ गयी. गए साढ़े चार दशकों से लेखन में सक्रिय अनामिका ने यों तो 14 वर्ष की उम्र में ही काव्याभ्यास आरंभ कर दिया था तथापि कविता के प्रति यह अनुरक्ति धीरे-धीरे प्रबल होती गयी. पिता की लाइब्रेरी की पुस्तकों की संगति में यह प्रेम और परवान चढ़ा. उन्नीस की उम्र तक दो संग्रह छप चुके थे. उसके बाद दिल्ली पहुंच कर अध्ययन के साथ लेखन जैसे नियमित अभ्यास में जुड़ गया, जिसका नतीजा यह हुआ कि लगातार पुस्तकें आती रहीं. पश्चिम के स्त्री-विमर्श ने भी अनामिका को भारतीय स्त्री को परखने की दृष्टि दी. कविताओं में यह स्त्री अपनी पूरी स्थानीयता के साथ आई और अनामिका ने स्त्री के ताप, संताप, सुख, दुख, हास-उल्लास, हताशा और अभिलाषा को एक नए अंदाज में रचा.
अनामिका की कविताओं से गुजरते हुए लगता है कि हम उस जगह, उस देश-काल और उस समाज से जुड़ गए हैं जिसकी कथा ये कविताएं कह रही हैं. बोल-बतकहियों में गंभीर से गंभीर बात कैसे कही जाती है, अनामिका ने इसे सलीके से साधा है. कविता के साथ अनामिका ने कथालेखन में भी पदार्पण किया. कई उपन्यास आए. उनके नायक समाज के लिए कुछ कर गुजरने वाले संघर्षशील और अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करने वाले थे. अनामिका का स्त्री विमर्श गांधी की चिंतनभूमि से प्रेरणा पाता है. गांधी जैसे हिंदू धर्म का अंत तक प्रक्षालन करते रहे. हिंदू सभ्यता के मटमैलेपन को अंत तक धोते पखारते रहे, अनामिका यही काम पुरुष समाज को लेकर करती रहीं. वे स्त्री की पीड़ा का भाष्य रचते हुए भी स्त्री-पुरुष के सहकार की कामना से भरी रहीं. इसलिए उनका स्त्री विमर्श प्रचलित स्त्री विमर्श की अवधारणा से दूर छिटका हुआ पर समावेशी है. वह पुरुष-विद्वेष या पितृसत्ता के प्रति अमर्ष से भरा हुआ नहीं है- वह पौरुषेय सत्ता से सहयोग की अभिलाषा रखता हुआ एक समृद्ध स्त्री पुरुष समाज की कल्पना से आशान्वित है. इस बातचीत में इसी आशा और उम्मीद से भर कर वे कहती हैं: मेरी कविता सहकारिता का वृंदगान है.
हिंदी कविता में पहली बार किसी स्त्री को साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत किए जाने को जब एक ऐतिहासिक घटना की तरह रेखांकित किया जा रहा है, तब साहित्य आजतक के लिए हिंदी के सुपरिचित लेखक डॉ ओम निश्चल ने उनसे बातचीत की.
-विनोबा भावे ने कहा है कि पुरस्कार टपका हुआ फल है. किसी भाग्यशाली की गोद में यह आ गिरता है. जब कि आप अपने लेखन के उस मोड़ पर हैं, जहां पहुंच कर यह आश्वस्ति होती है कि न केवल कविता, बल्कि किस्सागोई व स्त्री विमर्श की दिशा में आपने काबिलेगौर भूमिका अदा की है, यह पुरस्कार पाकर कैसी अनुभूति होती है?
*बहुत सटीक दृष्टांतों से बात करते हैं विनोबा जी. पुरस्कार संयोग-शासित होते ही हैं. मेरे पिता आस्तिक थे, उन्होंने इस विषय में अपने महाकाव्य ‘इड़ा गायत्री’ में लिखा है–
”क्या पुरस्कार, क्या तिरस्कार!
दोनों ही माता के दुलार
दो चार बढ़ाते आलोचक
पुरस्कार पाकर ऐसा ही लगता है जैसे मैथिल लोकगीत में बालिका वधू को, जो अचानक दरवाजे पर गाजा-बाजा देख कर चौंक जाती है:
सूतल छलियई बाबा के भवनवा
अचके में आयल कहार.
एकांत श्रम का गर्भ गृह किसी भी व्यक्ति के लिए ‘बाबा का भवनवा’ ही है.
हमारे यहां कहा गया है, बाढ़ैं पुत्र पिता के धरमे. खेती उपजै अपने करमे. पर आप तो स्त्री होकर अपने मां-पिता की संयुक्त तपस्या का प्रतिफल हैं, जिनकी प्रतिश्रुतियों का फल आपके सम्मुख है. क्या सोचती है आप इस बारे में?
*जी वे मुझे ‘दादी मॉं’ बुलाते थे और बचपन से मुझमें अहसास भरते थे अनामा शक्ति की तरह. जिस अनामा शक्ति पर मेरा नाम पड़ा. मैं अखिल ब्रह्मांड की मॉं हूँ, जैसे कि हर औरत होती है और हर संवेदनशील पुरुष. माता-पिता खुद भी ऐसे ही थे.
कहते हैं पटना के बाद मुजफ्फरपुर की अपनी पुख्ता साहित्यिक पृष्ठभूमि रही है. अनेक बड़े साहित्यकारों का गढ़ रहा है वह. मुजफ्फरपुर की चर्चा चलने पर क्या कुछ याद आता है?
*पूरा शहर एक संयुक्त परिवार था. दिन भर जानकीवल्लभ शास्त्री, मदन वात्स्यायन, राजेंद्र प्रसाद सिंह जैसे लेखक, सीताराम हरिराम दांडेकर जैसे संगीतकार, कुमार प्रशांत के माता-पिता जैसे चित्रकार और रामदास जैसे मूर्तिकार, सुहृद संघ जैसी संस्थाएं, नारायणी प्रेस जैसा प्राचीन प्रेस, गणिकाओं का प्राचीन मुहल्ला, पूरा विश्वविद्यालय, दाता कम्बलशाह की मजार- सब इस शहर के नैतिक भूगोल में शामिल थे.