फूलदेई की आप सभी को शुभकामनाये, जानते है फूलदेई के पीछे की कहानी

फूलदेई उत्तराखंड का एक ऐसा पर्व जो बच्चो के दिल के बहुत करीब है और एक ऐसा पर्व जो की उत्तराखंड के हर गांव के साथ साथ उत्तराखंड के शहरो में भी मनाया जाता है. फूलदेही एक ऐसा पर्व है जिसकी तैयारियां बच्चे एक दिन पहले से ही करने लग जाते है और इस पर्व में विशेष बुरास एव प्योंली के फूलो का इस्तेमाल किया जाता है.

फूलदेई के दिन छोटे छोटे बच्चे एक बर्तन में चावल एव फूल रख कर सभी लोगो के घर जाते है और फूलदेही के गाने गाते है इसके बदले में लोग बच्चो को गुड़, पैसे और चावल देते है. फूलदेई मनाने के हर गांव में अलग अलग तरीके है, और केदारनाथ में फूलदेही का त्यौहार 8 दिनों के लिए मनाया जाता है. उत्तराखंड के कुछ हिस्सों में फूलदेई को फुलारी त्योहार के नाम से भी जाना जाता है।

फूलदेई मानाने के पीछे की लोक कथा-

फूलदेई के त्यौहार के पीछे कई साड़ी लोक कथाये जुडी है, जिनमे से एक कथा प्योंली के फूल पर भी आधरित है. एक वनकन्या थी, जिसका नाम था फ्यूंली। फ्यूली जंगल में रहती थी। जंगल के पेड़ पौधे और जानवर ही उसका परिवार भी थे और दोस्त भी। फ्यूंली की वजह से जंगल और पहाड़ों में हरियाली थी, खुशहाली थी।

एक दिन दूर देश का एक राजकुमार जंगल में आया। फ्यूंली को राजकुमार से प्रेम हो गया। राजकुमार के कहने पर फ्यूंली ने उससे शादी कर ली और पहाड़ों को छोड़कर उसके साथ महल चली गई। फ्यूंली के जाते ही पेड़-पौधे मुरझाने लगे, नदियां सूखने लगीं और पहाड़ बरबाद होने लगे।

उधर महल में फ्यूंली ख़ुद बहुत बीमार रहने लगी। उसने राजकुमार से उसे वापस पहाड़ छोड़ देने की विनती की, लेकिन राजकुमार उसे छोड़ने को तैयार नहीं था…और एक दिन फ्यूंली मर गई। मरते-मरते उसने राजकुमार से गुज़ारिश की, कि उसका शव पहाड़ में ही कहीं दफना दे। फ्यूंली का शरीर राजकुमार ने पहाड़ की उसी चोटी पर जाकर दफनाया जहां से वो उसे लेकर आया था।

जिस जगह पर फ्यूंली को दफनाया गया, कुछ महीनों बाद वहां एक फूल खिला, जिसे फ्यूंली नाम दिया गया। इस फूल के खिलते ही पहाड़ फिर हरे होने लगे, नदियों में पानी फिर लबालब भर गया, पहाड़ की खुशहाली फ्यूंली के फूल के रूप में लौट आई। इसी फ्यूंली के फूल से द्वारपूजा करके लड़कियां फूलदेई में अपने घर और पूरे गांव की खुशहाली की दुआ करती हैं।

 

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