उत्तराखंड का बड़ा हिस्सा वनों से ढका है, लेकिन एक दौर वो था जब वनों के कटान के नियम इतने सख्त नहीं थे जितने की आज है.
उस दौर में पहाड़ों की स्थानीय जनता ने जंगलों के महत्व को समझा और आज ही के दिन साल 1973 में चमोली के रैणी गांव से चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई.
गौरा देवी ने चिपको आंदोलन साल 1973 में चमोली जिले के रैणी गांव से हरे-भरे पेड़ों को कटने से बचाने के लिए किया गया था. आज इस आंदोलन के 49 साल पूरे हो गए.
आज भी चिपको आंदोलन प्रदेशवासियों को अपने वनों के संरक्षण के लिए प्रेरित करता है. वहीं, उस समय आंदोलन को मुखर होते देख केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया था.
उस दौरान महिलाएं वनों को बचाने के लिए पेड़ों से चिपक गईं थी. इस आंदोलन का नेतृत्व गौरा देवी ने किया था. वहीं, आंदोलन को मुखर होते देख केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया था.
बता दें कि कि यह आंदोलन तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली जिले के छोटे से रैणी गांव से 26 मार्च यानि आज ही के दिन साल 1973 में शुरू हुया था. साल 1972 में प्रदेश के पहाड़ी जिलों में जंगलों की अंधाधुंध कटाई का सिलसिला शुरू हो चुका था.
लगातार पेड़ों के अवैध कटाई से आहत होकर गौरा देवी के नेतृत्व में ग्रामीणों ने आंदोलन तेज कर दिया था. बंदूकों की परवाह किए बिना ही उन्होंने पेड़ों को घेर लिया और पूरी रात पेड़ों से चिपकी रहीं.
अगले दिन यह खबर आग की तरह फैल गई और आसपास के गांवों में पेड़ों को बचाने के लिए लोग पेड़ों से चिपकने लगे. चार दिन के टकराव के बाद पेड़ काटने वालों को अपने कदम पीछे खींचने पड़े.
इस आंदोलन में महिला, बच्चे और पुरुषों ने पेड़ों से लिपटकर अवैध कटान का पुरजोर विरोध किया था. गौरा देवी वो शख्सियत हैं, जिनके प्रयासों से ही चिपको आंदोलन को विश्व पटल पर जगह मिल पाई.
इस आंदोलन में प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा, गोविंद सिंह रावत, चंडीप्रसाद भट्ट समेत कई लोग भी शामिल थे.
वहीं, 1973 में शुरू हुए इस आंदोलन की गूंज केंद्र सरकार तक पहुंच गई थी. इस आंदोलन का असर उस दौर में केंद्र की राजनीति में पर्यावरण का एक एजेंडा बना.
आंदोलन को देखते हुए केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया. इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वन की रक्षा करना और पर्यावरण को जीवित करना था.
चिपको आंदोलन के चलते ही साल 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक विधेयक बनाया था. जिसके तहत देश के सभी हिमालयी क्षेत्रों में वनों के काटने पर 15 सालों का प्रतिबंध लगा दिया गया था.
इस आंदोलन के बलबूते महिलाओं को एक अलग पहचान मिल पाई थी. महिलाओं और पुरुषों ने पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान तक की परवाह नहीं की थी.