उत्तराखंड के जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’  की 12वीं पुण्यतिथि आज

आज उत्तराखंड के जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’  की 12वीं पुण्यतिथि है. गिर्दा पृथक राज्य की मांग को लेकर चल रहे आंदोलन को अपने जनगीतों और कविताओं से धार देते थे.

भले ही आज गिर्दा हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनकी रचनाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं. गिर्दा की पुण्यतिथि पर सूबे के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने उन्हें शत् शत् नमन करते हुए विनम्र श्रद्धांजलि दी है.

‘गिर्दा’  का जन्म 10 सितंबर 1945 में अल्मोड़ा जिले के ज्योली गांव में हुआ था. गिर्दा ने अपने गीतों, कविताओं से उत्तराखंड के जन आंदोलनों को नई ताकत दी.

चिपको, नशा नहीं-रोजगार दो, उत्तराखंड आंदोलन और नदी बचाओ आंदोलन को नए तेवर दिए. उनके गीतों से मिलती ताकत से सोए और निष्क्रिय पड़े लोग भी सोचने पर विवश हो जाते थे.

जनगीतों के नायक ‘गिर्दा’ 

 गिरीश चंद्र तिवारी (गिर्दा) उत्तराखंड के एक बहुचर्चित पटकथा, लेकर, गायक, कवि, निर्देशक, गीतकार और साहित्यकार थे.

गिरीश चंद्र तिवारी उर्फ ‘गिर्दा’ को जनगीतों का नायक भी कहा जाता है. राज्य के निर्माण आंदोलन में अपने गीतों से पहाड़ी जनमानस में ऊर्जा का संचार और अपनी बातों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने का जो हुनर गिर्दा में था, वो सबसे अलहदा था. उनकी रचनाएं इस बात की तस्दीक करती है.

लखनऊ से शुरू हुआ सफर:

युवा अवस्था में वह रोजगार की तलाश में यूपी के पीलीभीत, अलीगढ़ और लखनऊ आदि शहरों में रहे. लखनऊ में बिजली विभाग और लोक निर्माण विभाग में नौकरी करने के कुछ समय बाद ही गिर्दा को 1967 में गीत और नाटक विभाग, लखनऊ में स्थाई नौकरी मिल गई.

इसी नौकरी के कारण गिर्दा का आकाशवाणी लखनऊ में आना-जाना शुरू हुआ और उनकी मुलाकात शेरदा अनपढ़, केशव अनुरागी, उर्मिल कुमार थपलियाल और घनश्याम सैलानी से हुई.

 इस दौरान युवा रचनाकारों के सानिध्य में गिर्दा की प्रतिभा में निखार आया और उन्होंने कई नाटकों की प्रस्तुतियां तैयार की.

जिनमें गंगाधर, होली, मोहिल माटी, राम, कृष्ण आदि नृत्य नाटिकाएं प्रमुख हैं. गिर्दा ने दुर्गेश पंत से साथ मिलकर 1968 में कुमाउंनी कविताओं का संग्रह ‘शिखरों के स्वर’ प्रकाशित किया. जिसका दूसरा संस्करण 2009 में प्रकाशित किया गया.

गिर्दा ने कुमाउंनी और हिन्दी में कई कविताएं लिखीं. उन्होंने अनेक गीतों और कविताओं की धुनें भी तैयारी की. अंधायुग, अंधेर नगरी चौपट राजा, नगाड़े खामोश हैं. धनुष यज्ञ जैसे अनेक नाटकों का उन्होंने निर्देशन भी किया.

इस बीच उत्तराखंड में जंगलों के अंधाधुंध कटान के खिलाफ 1974 में चिपको आंदोलन और जंगलात की लकड़ियों के नीलामी के विरोध में गिर्दा जनकवि के रूप में कूद पड़े.

नीलामी का विरोध करने वाले युवाओं को गिर्दा के ‘आज हिमाल तुमन कैं धत्युछ, जागौ-जागौ हो मेरा लाल’ शब्दों ने अपार शक्ति और ऊर्जा प्रदान की.

उत्तराखंड आंदोलनों में गिर्दा

 इसके बाद तो गिर्दा ने उत्तराखंड में आंदोलन की ऐसी राह पकड़ी कि वो खुद उत्तराखंड आंदोलनों के पर्याय बन गए. उन्होंने जनगीतों से लोगों को अपने हक-हकूकों के लिए ना सिर्फ लड़ने की प्रेरणा दी.

बल्कि, परिवर्तन की आस जगाई. उत्तराखंड के साल 1977 में चले वन बचाओ आंदोलन, 1984 के नशा नहीं रोजगार दो और 1994 में हुए उत्तराखंड आंदोलन में गिर्दा की रचनाओं ने जान फूंकी थी. इतना ही नहीं उसके बाद भी हर आंदोलन में गिर्दा ने बढ़-चढ़कर शिरकत की.

उन्होंने रचनाओं से हमेशा राजनीति के ठेकेदारों पर गहरा वार किया. राज्य आंदोलन के दौरान लोगों को एक साथ बांधने का काम भी गिर्दा ने किया.

सरोवर नगरी नैनीताल में एक आंदोलन में गिर्दा ने हम लड़ते रैया भुला हम लड़ते रूंला.. ओ जैंता एक दिन तो आलो यो दिन यो दुनि मां.. उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि तेरी जैजैकारा.. जन एकता कूच करो..समेत कई जनगीतों से जान फूंक दी थी. रंगकर्मी जहूर आलम भी गिर्दा को याद करते हुए कहते हैं कि उत्तराखंड के आंदोलनों की वो जान थे.

22 अगस्त 2010 को अचानक गिर्दा की आवाज हमेशा के लिए शांत हो गई.

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