विकास बनाम विस्थापन: मज़दूर बस्तियों को हटाने के खिलाफ गरजे लोग, जनसभा का एलान

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मज़दूर बस्तियां आईं एलिवेटेड रोड परियोजना की चपेट में, संघर्ष का एलान

“विकास के नाम पर उजाड़ा नहीं जाएगा, बस्तियां भी इस शहर का हिस्सा हैं”

देहरादून। देहराखास की एक पुरानी श्रमिक बस्ती में मंगलवार को एक बड़ी जनसभा का आयोजन हुआ, जिसमें सरकार द्वारा एलिवेटेड रोड परियोजना के तहत चलाए जा रहे कथित विस्थापन अभियान के खिलाफ आवाज़ बुलंद की गई। इस सभा का आयोजन ‘जन हस्तक्षेप’ के बैनर तले किया गया, जिसमें चेतना आंदोलन और अन्य सामाजिक संगठनों से जुड़े कार्यकर्ता शामिल हुए।

सभा में बड़ी संख्या में बस्तीवासी, सामाजिक कार्यकर्ता और छात्र-नौजवान जुटे। मंच से वक्ताओं ने प्रशासन की उस नीति पर सवाल उठाए जिसमें केवल गरीबों की बस्तियों को हटाने का प्रयास किया जा रहा है, जबकि शहर के भीतर मौजूद होटल, रेस्टोरेंट, बड़े सरकारी दफ्तर और प्रभावशाली वर्ग के अतिक्रमणों को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है।

“विकास सबका हो, विस्थापन नहीं”

वक्ताओं का कहना था कि एलिवेटेड रोड जैसी परियोजनाएं अक्सर ‘स्मार्ट सिटी’ और ‘विकास’ के नाम पर लाई जाती हैं, लेकिन इनका बोझ केवल गरीबों और श्रमिकों पर ही क्यों डाला जाता है? राजेश यादव, जो वर्षों से श्रमिक अधिकारों पर काम कर रहे हैं, ने सभा को संबोधित करते हुए कहा, “हम विकास के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन उस विकास का क्या लाभ जो हज़ारों परिवारों को बेघर कर दे, बच्चों की पढ़ाई छीन ले और रोज़गार छिन जाए?”

सभा में उपस्थित बस्तीवासियों ने बताया कि प्रशासन द्वारा चलाया जा रहा सर्वेक्षण पूरी तरह से एकतरफा है। लोगों को यह नहीं बताया जा रहा कि परियोजना का दायरा क्या है, कौन-कौन प्रभावित होगा और उनका क्या विकल्प दिया जाएगा। एक निवासी, शाहीन बेगम, ने रोते हुए कहा, “हम यहाँ 20 साल से रह रहे हैं, हमारे पास पहचान पत्र, बिजली के बिल, वोटर कार्ड सब हैं। लेकिन अब कहा जा रहा है कि हमारी बस्ती ‘अवैध’ है। क्या यही इनसाफ है?”

जनसभा में वर्ष 2024 की उस घटना को भी याद किया गया जब रिस्पना नदी किनारे की बस्तियों को हटाने की कोशिश की गई थी। तब प्रशासन ने दावा किया था कि वहाँ 525 अवैध घर हैं, लेकिन जनआंदोलन के दबाव में बाद में स्वीकार किया गया कि 400 से अधिक घर वैध थे। वक्ताओं ने इस उदाहरण को सामने रखकर प्रशासन की नीयत पर सवाल उठाए और कहा कि इस बार भी वही दोहराया जा रहा है।

सभा में एक और महत्वपूर्ण मुद्दा यह उठा कि मुख्यमंत्री ने 17 जनवरी को सार्वजनिक रूप से आश्वासन दिया था कि किसी भी मज़दूर बस्ती को उजाड़ा नहीं जाएगा और सभी को मालिकाना हक देने की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएंगे। लेकिन तीन महीने बीत चुके हैं और ज़मीनी स्तर पर कोई बदलाव नहीं दिख रहा। उल्टे, बस्तियों को हटाने की प्रक्रिया तेज़ कर दी गई है।

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मज़दूर कल्याण योजनाएं भी ठप

सभा में यह भी बताया गया कि निर्माण मज़दूरों के लिए बनी सरकारी योजनाएं सिर्फ कागज़ों में सिमट कर रह गई हैं। पिछले छह महीनों से मज़दूर पंजीकरण की प्रक्रिया पूरी तरह ठप है, जिससे वे किसी भी सरकारी लाभ से वंचित हैं। वक्ताओं ने इस लापरवाही को ‘सिस्टमेटिक बहिष्कार’ की नीति करार दिया और कहा कि यह मज़दूरों के अधिकारों का सीधा हनन है।

सभा के अंत में सभी ने एक स्वर में संकल्प लिया कि वे किसी भी हाल में अपने घरों को यूँ उजड़ने नहीं देंगे। सामाजिक कार्यकर्ता शंकर गोपाल ने कहा, “यह सिर्फ दीवारों की लड़ाई नहीं है, यह हमारे बच्चों के भविष्य की लड़ाई है। जब तक सरकार पुनर्वास की ठोस नीति नहीं लाती और सबके साथ न्याय नहीं होता, तब तक हम पीछे नहीं हटेंगे।”

‘जन हस्तक्षेप’ की ओर से यह घोषणा भी की गई कि आने वाले दिनों में जनजागरूकता अभियान चलाया जाएगा, जनप्रतिनिधियों से मुलाकात की जाएगी और ज़रूरत पड़ी तो व्यापक जनआंदोलन शुरू किया जाएगा। वक्ताओं ने यह भी कहा कि यह लड़ाई केवल एक बस्ती की नहीं, बल्कि पूरे राज्य में रहने वाले असंगठित मज़दूरों की है, जो वर्षों से हाशिए पर धकेले जा रहे हैं

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