स्मृति शेष- वरिष्ठ पत्रकार दिनेश शास्त्री की कलम से
उत्तराखंड के हितों के लिए रात दिन मुखर रहने वाले भट्ट मंगलवार को सदा सदा के लिए सो गए। तीखे तेवरों के कारण ही दिवाकर भट्ट को फील्ड मार्शल कहा गया था लेकिन फील्ड मार्शल इस तरह मौन गमन करेंगे, इसकी उम्मीद नहीं थी।
सहसा विश्वास करना कठिन हो रहा है कि सत्ता प्रतिष्ठान को तीखे अंदाज में चुनौती देने वाला इस तरह बीमारी से हार मान लेगा। यकीन करना कठिन हो रहा है। उनके निधन से समूचे उत्तराखंड ने पहाड़ के सरोकारों के लिए समर्पित व्यक्तित्व को खो दिया है।
मौजूदा दौर में उक्रांद बेशक हाशिए पर हो लेकिन 1979 में उक्रांद के गठन के समय से ही दिवाकर भट्ट अलग उत्तराखंड की मांग करने वाले लोगों की पहली जमात में जुड़ गए थे।
इस लिहाज से वे डॉ. डी डी पंत, इंद्रमणि बडोनी आदि नेताओं के साथ उक्रांद के संस्थापक सदस्यों में एक थे।
राज्य आंदोलन में उनकी भूमिका को कौन झुठला सकता है। टिहरी के खैट पर्वत पर अनशन हो या श्रीनगर के श्रीयंत्र टापू में आमरण अनशन या फिर पौड़ी का आंदोलन, सभी जगह उन्होंने अग्रणी भूमिका निभाई। आपको याद होगा, फील्ड मार्शल ने अपनी राजनैतिक यात्रा कीर्तिनगर के ब्लाक प्रमुख पद से शुरू की थी। उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। राज्य आंदोलन के हर मोड पर वे हमेशा आगे रहे।1990 के दशक में तब दिल्ली के वोट क्लब पर राजनीतिक रैलियां हुआ करती थी, बाद में वहां रैलियां पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
लोकगायक हीरासिंह राणा के जनजागरण गीत ” लस कमर बांध, हिम्मत का साथ” के बाद फील्ड मार्शल का संबोधन हुआ तो देर तक उत्तराखंड राज्य की मांग करने आए लोगों ने ऊर्जा का इस कदर संचार हुआ था कि लोग देर तक उन्हें सुनते रहे। तब काशी सिंह ऐरी उक्रांद के अध्यक्ष हुआ करते थे और दिल्ली उक्रांद के अध्यक्ष खीमानंद खुल्बे।
खुल्बे ने ही दिल्ली में रह रहे पहाड़ के मीडियाकर्मियों को जोड़ा था। इस कारण मैं भी उस रैली का साक्षी था। आज भी दिवाकर भट्ट का वह ओजस्वी भाषण कानों में गूंजता है। उससे पहले पूर्ण सिंह डंगवाल के निवास पर रैली की तैयारी के लिए हुई बैठक में भी फील्ड मार्शल मौजूद थे और तब भी जब वीपी सिंह के मंडल दांव के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करने के लिए मंत्रणा हुई तो विपिन त्रिपाठी के साथ फील्ड मार्शल भी उनमें शामिल थे।
फील्ड मार्शल ने अपनी नेतृत्व क्षमता का लोहा तब भी मनवाया था, जब वे बाला साहब ठाकरे से मिलने मुंबई गए थे लेकिन पहले ठाकरे ने बात करने से ही इनकार कर दिया था लेकिन जब फील्ड मार्शल ने अपनी दलीलें रखी तो ठाकरे ने न सिर्फ उन्हें गौर से सुना बल्कि उत्तराखंड आंदोलन का समर्थन भी कर दिया था।
वर्ष 2000 में पृथक राज्य बना तो पहले विधानसभा चुनाव में उक्रांद के चार विधायक चुन कर आए थे लेकिन 2007 के दूसरी विधानसभा के चुनाव में दिवाकर भट्ट देवप्रयाग सीट से विधायक बने। बीसी खंडूरी सरकार में उन्होंने राजस्व मंत्री का पदभार संभाला।
भट्ट पहाड़ के दर्द को समझते थे और इसके लिए हमेशा समर्पित रहे। उनके योगदान को देखते हुए ही जनता ने उन्हें फील्ड मार्शल का नाम दिया था। आज जिस दौर से उत्तराखंड गुजर रहा है, ऐसे वक्त में उत्तराखंड को दिवाकर भट्ट जैसे संघर्षशील व्यक्ति की ज्यादा जरूरत महसूस होती है लेकिन नियति को यह मंजूर कहां? निसंदेह फील्ड मार्शल का यूं चला जाना संघर्षशील ताकतों के लिए भी क्षति है और उत्तराखंड के लिए भी।
सरकार के फैसलों पर सवाल उठाने का मामला हो या किसी क्षेत्र विशेष के लिए कोई योजना हो, फील्ड मार्शल बड़ी शिद्दत से मुद्दे को उठाते थे और अंजाम तक पहुंचाने की कोशिश करते थे।

दुर्भाग्य से आज उक्रांद संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। समय पर पार्टी नेताओं ने दूसरी पंक्ति खड़ी नहीं की, अब कुछ लोग आगे आए हैं तो उम्मीद की जानी चाहिए़ कि वे फील्ड मार्शल के अधूरे काम को आगे बढ़ाएंगे। दिवाकर भट्ट की क्षतिपूर्ति तो नहीं हो सकती लेकिन उनके बताए रास्ते पर चल कर उनके अधूरे काम को पूरा तो किया ही जा सकता है और यही उनके प्रति श्रद्धांजलि भी होगी।
आज उत्तराखंड फील्ड मार्शल भट्ट को उसी शिद्दत से याद कर रहा है, जिस शिद्दत से लोग उन्हें देखते सुनते आए। दिवंगत नेता को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि ।












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